जब आप राजस्थान की कला एवं संस्कृति | Rajasthan Art and Culture विषय को पढ़ेंगे तो उसमें आपको राजस्थान की भाषा एवं बोलियां टॉपिक पढ़ने को मिलेगा इस पोस्ट में आज हम उसी के शॉर्ट नोट्स आपको उपलब्ध करवा रहे हैं यह ऐसे नोट्स है जो इस टॉपिक को शार्ट तरीके से एवं आसान भाषा में याद करने के लिए काम आएंगे

 राजस्थान की प्रमुख भाषा एवं बोलियां आप विस्तार से नीचे पढ़ सकते हैं ऐसे नोट्स शायद ही फ्री में आपको गूगल पर देखने को मिलेंगे लेकिन हम आपके लिए ऐसे नोट्स नि शुल्क लेकर आते हैं

राजस्थान की भाषा एवं बोलियां नोट्स

A. राजस्थान की भाषा एवं बोलियाँ

राजस्थानी भाषा का उद्भव –
– भारतीय आधुनिक भाषाओं की जननी अपभ्रंश मानी जाती है तथा राजस्थानी भाषा को अपभ्रंश की पहली संतान कहा जाता है।
– राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के गुर्जरी अपभ्रंश से हुई।
– राजस्थानी भाषा के विकास में भारोपीय भाषा की आर्य भाषा महत्त्वपूर्ण है।

– 8वीं शताब्दी में उद्योतन सूरी द्वारा रचित ग्रंथ कुवलयमाला में वर्णित 18 देशी भाषाओं में ‘मरुवाणी’ को मरुदेश की भाषा के रूप में उल्लेख किया गया।
– अबुल फजल द्वारा रचित ग्रंथ आइन-ए-अकबरी तथा कवि कुशललाभ द्वारा रचित ग्रंथ पिंगल शिरोमणि  में ‘मारवाड़ी’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
– जॉर्ज थॉमस ने वर्ष 1805 में राजस्थान के लिए सर्वप्रथम ‘राजपूताना’ शब्द का प्रयोग किया।
– वर्ष 1829 कर्नल जेम्स टॉड द्वारा लिखित ‘दी एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ में राजपूताना क्षेत्र के लिए राजस्थान, रायथान, रजवाड़ा शब्दों का उल्लेख हैं इसमें सर्वप्रथम किसी क्षेत्र विशेष के लिए राजस्थान शब्द का प्रयोग किया गया।
– वर्ष 1912 में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ में सर्वप्रथम राजस्थान की भाषा के लिए राजस्थानी नाम का प्रयोग किया गया।
– डॉ. जॉर्ज अब्राहम एवं पुरुषोत्तम मेनारिया ने राजस्थान भाषा की उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत के नागरी अपभ्रंश से होना बताई है। 
– डॉ. एल.पी. टैस्सीटोरी ने अपनी पत्रिका ‘इंडियन ऐन्टीक्वेरी’ में राजस्थानी की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डाला।
– उनके अनुसार इस भाषा का अस्तित्व 12वीं सदी के लगभग हो चुका था।
– डॉ. एल.पी. टैस्सीटोरी, माणिक्यलाल, मुंशी डॉ. मोतीलाल मेनारिया, कन्हैयालाल आदि ने राजस्थानी भाषा का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ है।
– 17वीं सदी में राजस्थानी भाषा का विकास एक स्वतंत्र भाषा के रूप में होने लगा था तथा राजस्थानी भाषा के विकास को निम्नलिखित चरणों में स्पष्ट किया जाता है-
1. गुर्जरी अपभ्रंश – 11वीं से 13वीं सदी
2. प्राचीन राजस्थानी – 13वीं से 16वीं सदी
3. मध्य राजस्थानी – 16वीं सदी से 18वीं सदी 
4. आधुनिक (अर्वाचीन) राजस्थानी – 18वीं सदी से अब तक
– 1700 से 1900 ई. के मध्य के काल को राजस्थानी भाषा का स्वर्णकाल माना जाता है।
– राजस्थान के विभिन्न अंचलों में अनेक प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं परन्तु मुख्य रूप से राजस्थानी भाषा को दो रूपों से जाना जाता है-

1. पश्चिमी राजस्थानी
– पश्चिमी राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि चार बोलियाँ हैं – 
मारवाड़ी, मेवाड़ी, वागड़ी व शेखावाटी 
– इस भाषा के साहित्यिक रूप को ‘डिंगल’ कहा जाता है।
जैन तथा चारण साहित्य डिंगल भाषा में अधिक लिखे गए हैं।
– इसका विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ।
– प्रमुख ग्रंथ – अचलदास खींची री वचनिका, रुक्मणि हरण, ढोला मारू रा दूहा, संगत रासो, राव जैतसी रो छंद व राजरूपक आदि।

2. पूर्वी राजस्थानी
– पूर्वी राजस्थानी भाषा की प्रतिनिधि चार बोलियाँ हैं- 
ढूँढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती व अहीरवाटी 
– इस भाषा के साहित्यिक रूप को ‘पिंगल’ कहा जाता है।
– भाट जाति के अधिकांश साहित्य पिंगल भाषा में लिखित हैं।
– इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ।
– प्रमुख ग्रंथ – विजयपाल रासो, वंश भास्कर, खुमाण रासो, पृथ्वीराज रासो आदि।
– 21 फरवरी को ‘राजस्थानी भाषा’ दिवस तथा 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है।
– राजस्थान की राजभाषा हिंदी तथा मातृभाषा राजस्थानी है।
– राजस्थान के संबंध में एक लोकोक्ति प्रचलित है-
‘पाँच कोस पर पानी बदले, सात कोस पर बाणी’

राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सनडॉ. एल.पी. टैस्सीटोरी
राजस्थानी भाषा के 5 प्रकार बताए-
1. उत्तर-पूर्वी राजस्थानी
2. मध्य-पूर्वी राजस्थानी
3. दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी
4. पश्चिमी-दक्षिणी  राजस्थानी
5. पूर्वी  राजस्थानी
राजस्थानी भाषा के 2 प्रकार बताए-
1. पूर्वी राजस्थानी
2. पश्चिमी राजस्थानी

राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियाँ

A. मारवाड़ी बोली

 उत्पत्ति – 8वीं सदी में शौरसेनी प्राकृत के गुर्जरी अपभ्रंश से हुई।
– 8वीं शताब्दी में उद्योतन सूरी द्वारा रचित ग्रंथ कुवलयमाला में मारवाड़ी को मरुवाणी कहा गया।
– विशुद्ध मारवाड़ी – जोधपुर के आसपास के क्षेत्र में।
– अन्य क्षेत्र – जैसलमेर, पाली, नागौर, बाड़मेर, बीकानेर, जालोर, सिरोही।
– यह राजस्थान की सबसे प्राचीन व सर्वाधिक बोली जाने वाली बोली है।
– इस भाषा का साहित्यिक रूप डिंगल कहलाता हैं।
– प्राचीन जैन साहित्य और मीराबाई के पद इसी भाषा में रचित हैं।

प्रमुख उपबोलियाँ-
–  मेवाड़ी, वागड़ी, शेखावाटी, गौड़वाड़ी, थली, नागौरी, देवड़ावाटी, खैराड़ी, बीकानेरी आदि।

1. मेवाड़ी बोली

– मेवाड़ क्षेत्र में उदयपुर, राजसमंद, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ जिलों में बोली जाती है।
– यह राजस्थान की दूसरी प्राचीन बोली तथा दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली है।
– कुम्भाकालीन रचित कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में मेवाड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
– मेवाड़ी भाषा में सर्वाधिक लोक साहित्यों की रचना की गई।
– धावड़ी उदयपुर की एक बोली है।

2. वागड़ी

– डूँगरपुर तथा बाँसवाड़ा में बोली जाने वाली बोली है।
– इस बोली पर मेवाड़ी तथा गुजराती बोली का प्रभाव है।
– जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने इसे ‘भीली बोली’ कहा है।

3. खैराड़ी

– यह बोली ढूँढाड़ी, मेवाड़ी और हाड़ौती का मिश्रण है।
– प्रमुख क्षेत्र – शाहपुरा (भीलवाड़ा), बूँदी
– यह मीणाओं की प्रिय बोली है।

4. शेखावाटी

– सीकर, चूरू व झुंझुनूँ क्षेत्र में बोली जाती है।
 इस पर मारवाड़ी व ढूँढाड़ी का प्रभाव देखा जाता है।
– यह खड़ी व कर्कश बोली है।

5. गौडवाड़ी

– लूणी नदी के बालोतरा के बाद अपवाह तंत्र को गौड़वाड़ प्रदेश कहते हैं। इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली गौड़वाडी है।
– यह मुख्यतजालोर, पाली व सिरोही क्षेत्र में बोली जाती है।
– इसका प्रमुख केन्द्र बाली (पाली) हैं।
– नरपति नाल्ह द्वारा ‘बीसलदेव रासो’ नामक ग्रंथ इसी भाषा में रचित है।

6. देवड़ावाटी

– यह सिरोही के देवड़ा शासकों की बोली है।
– इसका प्रमुख क्षेत्र सिरोही है।
– उपनाम – सिरोही बोली।

7. थली बोली

– बीकानेर के आस-पास बोली जाती है।

8. ढ़ाटी बोली

– यह बाड़मेर क्षेत्र में बोली जाती है।

B. ढूँढाड़ी बोली

 ढूँढाड़ी बोली का सबसे प्राचीनतम प्रमाण 18 वीं सदी के ग्रन्थ आठ देस गूजरी नामक ग्रन्थ में मिलता है।
 इसके उपनाम झाड़शाही बोली या जयपुरी बोली है।
 इसके प्रमुख क्षेत्र जयपुर, आमेर, दौसा, टोंक, किशनगढ़ आदि है।
– इस बोली पर मारवाड़ी भाषा, ब्रजभाषा और गुजराती भाषा का प्रभाव हैं।
– संत दादू एवं उनके शिष्यों की रचनाएँ इसी भाषा में रची गई है।

प्रमुख उपबोलियाँ –
– तोरावाटी, मालवी, राजावाटी, नागर चोल, काठेड़ी, चौरासी, उदयपुरवाटी, हाड़ौती, अजमेरी, किशनगढ़ी।

1. तोरावाटी बोली

– कांतली नदी का अपवाह क्षेत्र तोरावाटी प्रदेश कहलाता है। इस प्रदेश में बोली जाने वाली बोली को तोरावाटी बोली कहते हैं।
– यह सीकर, झुंझुनूँ व जयपुर के उत्तरी भाग में बोली जाती है। 

2. किशनगढ़ी

– किशनगढ़ के आस-पास के क्षेत्र में बोली जाती है।

3. अजमेरी

– अजमेर जिले के गाँवों में बोली जाती है।

4. राजावाटी

 सवाई माधोपुर व जयपुर के सीमावर्ती क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली है।

5. काठेड़ी

– जयपुर के दक्षिण भाग व दौसा के सीमावर्ती क्षेत्र में प्रचलित है।

6. चौरासी

– जयपुर के दक्षिण-पश्चिम भाग व टोंक के पश्चिम भाग में प्रचलित है।

7. नागर चोल

 सवाई माधोपुर व जयपुर के पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्र में बोली जाती है।

8. जगरौती बोली

– करौली क्षेत्र की प्रमुख बोली है।

9. हाड़ौती

 यह ढूँढाड़ी की उपबोली है।
– कोटा, बूँदी, बाराँ, झालावाड़ क्षेत्र में बोली जाती है।
– यह बोली वर्तनी की दृष्टि से सबसे कठिन मानी जाती है।
– कवि सूर्यमल्ल मीसण के सभी ग्रन्थों की रचना इसी भाषा में की गई।
– एम. केलांग ने वर्ष 1875 में अपनी पुस्तक ‘हिन्दी ग्रामर’ में हाड़ौती शब्द सर्वप्रथम भाषा के रूप में प्रयोग किया गया।
– जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी।

C. मेवाती बोली

– अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली के पूर्वी क्षेत्र में बोली जाती है। 
– इस पर ब्रजभाषा का प्रभाव देखा जाता है।
– मेव जाति के मुसलमानों द्वारा बोली जाती है।
– संत लालदासजी, संत चरणदासजी, सहजोबाई, (‘सहज प्रकाश’, ‘सोलह तिथि’) दयाबाई (‘दयाबोध’, ‘विनयमालिका’) व डूँगरसिंह आदि की रचनाएँ इसी भाषा में रची गई है।

D. मालवी बोली

– यह मधुर व कर्णप्रिय बोली है।
– कोटा, भैंसरोड़गढ़ (चित्तौड़गढ़) व प्रतापगढ़ के क्षेत्र में बोली जाती है। 
– मालवा के राजपूतों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है।
– इस बोली पर गुजराती व मराठी भाषा का भी न्यूनाधिक प्रभाव देखा जाता है।
– उपबोलियाँ  

1. निमाड़ी बोली

– दक्षिणी राजस्थान (डूँगरपुर और बाँसवाड़ा) और उत्तरी मालवा क्षेत्र में बोली जाती है।
– ‘दक्षिणी राजस्थानी बोली’ भी कहा जाता है।

2. रांगड़ी बोली

– मालवी और मारवाड़ी का मिश्रण रूप है।
– मालवा के राजपूतों की कर्कश बोली है।

E. अहीरवाटी या राठी बोली

– अहीर जाति द्वारा बोली जाने वाली बोली हैं। 
– इसको राठी, हीरवाल या हीरवाटी बोली भी कहते हैं।
– अलवर के मुंडावर तथा बहरोड़ तहसील व जयपुर की कोटपुतली तहसील क्षेत्र में बोली जाती है। 
– यह बोली हरियाणा की बांगरू और राजस्थानी की मेवाती बोली की मिश्रित बोली है। 
– इसी भाषा में जोधराज का ‘हम्मीर महाकाव्य’ तथा ‘अलीबख्श ख्याल’ नामक नाट्य लिखे हुए हैं। 

अंतिम शब्द

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